ये क्या है बे?

March 15, 2025

सुबह जल्दी उठना था, रात देर तक जागे रहे।
नींद आई तो अलार्म बजा, अब सोच रहे हैं, सोना चाहिए था।

पढ़ाई की किताबें खोलीं, सोचा— "आज पूरा सिलेबस खत्म!"
पांच पन्ने पढ़े, ध्यान भटका, अब तक इंटरनेट पर देख रहे हैं— "10 मिनट में सब याद करने के तरीके!"

कहते हैं, मेहनत करो तो मिलेगा, पर जो मेहनत कर रहे हैं, वो भी परेशान हैं।
कहते हैं, आराम ज़रूरी है, पर जो आराम कर रहे हैं, उन्हें भी बेचैनी है।

खाने का ऑर्डर दिया, पेट भरा था, पर जब आया तो भूख लगने लगी।
सोचा वॉक पर जाएंगे, फिटनेस ज़रूरी है, पर रास्ते में समोसे दिख गए,
अब सोच रहे हैं, अगले सोमवार से सही।

कहते हैं, असली चीज़ें ऑनलाइन नहीं होतीं, पर खुद घंटों मोबाइल देख रहे हैं।

घूमने निकले थे सुकून के लिए, फिर हर जगह फ़ोटो लेने में ही समय चला गया।
अब सोच रहे हैं, फोन कम यूज़ करना चाहिए, पर स्टेटस पर कोई लाइक नहीं आया!

ज़िंदगी सीधी होनी चाहिए, पर जो सीधा चलता है, वो बोरिंग लगता है।
मंज़िल तक पहुँचना ज़रूरी है, पर सफर का मज़ा भी लेना है।

स्कूल में नंबर अच्छे आए, लोग बोले— "वाह बेटा, तू टॉप करेगा!"
स्कूल में नंबर कम आए, लोग बोले— "कोई बात नहीं, टॉप करने वाले भी बेरोज़गार घूम रहे हैं!"
अब सोच रहा हूँ, पढ़ूँ या ठेले लगाऊँ?

कैरियर की गाड़ी दौड़ रही है, पर रोडमैप किसी के पास नहीं।
इंजीनियरिंग की, तो बोले— "कोडिंग सीखो!"
कोडिंग सीखी, तो बोले— "AI तुम्हारी नौकरी खा जाएगा!"
अब सोच रहा हूँ, कंप्यूटर बन जाऊँ क्या?

बुज़ुर्ग बोले— "हमारे ज़माने में हम बड़े संस्कारी थे!"
फिर उनकी जवानी की फ़ोटो देखी,
पापा बेलबॉटम में डिस्को कर रहे थे,
मम्मी बालों में पंख फँसाए खड़ी थीं!
संस्कार गए तेल लेने!

शादी का सवाल आया तो बोले— "अभी टाइम है, पहले करियर बनाओ!"
करियर बना तो बोले— "अब उम्र हो गई, जल्दी शादी करो!"
अब सोच रहा हूँ, टाइम कम था या टाइम ज़्यादा था?

घूमने गए थे पहाड़ों में सुकून लेने,
पर लोग वहाँ भी ईमेल चेक कर रहे थे।
कहते हैं, शहर की भीड़ से दूर आए हैं,
फिर पार्किंग ढूँढने में एक घंटा लगा दिया!

ज़िंदगी के फैसले लेने थे, एक पेपर चिट बनाकर टॉस कर दिया।
"चलो भाई, सिर आया तो डॉक्टर, पूँछ आया तो MBA!"
चिट हवा में उड़ गई

कहते हैं— "संघर्ष ही सफलता की कुंजी है!"
फिर अम्बानी के बेटे को देखता हूँ और सोचता हूँ,
"क्या मेरे दरवाज़े का ताला ही ग़लत है?"

बचपन में पेंसिल से लिखवाया— "ग़लतियाँ इंसान से होती हैं!"
बड़े होकर पेन से गलती हो गई तो बोले— "तू तो नालायक है!"
अब सोच रहा हूँ, जिंदगी रबर के साथ आती है कि नहीं?

सोचने बैठे कि ज़िंदगी में करना क्या है,
बड़े बोले— "इतना मत सोचो, बस करो!"
बिना सोचे कुछ किया तो बोले— "अकल घास चरने गई थी क्या?"
अब बताओ, सोचूँ या बस करूँ?

कहते हैं— "खुद पर विश्वास रखो!"
फिर बोले— "बड़ों की सुनो, वे ज़्यादा जानते हैं!"
अब सोच रहा हूँ, खुद की सुनूँ या एक्सपीरियंस की गुलामी करूँ?

जीवन की ये Assertion-Reasoning तो समझ ना आई मुझे,
अगर समझ गए तो मुझे भी समझा दो, वरना मिलकर कन्फ्यूज़ हो लेते हैं!
क्योंकि ये दुनिया कहती है— "हर चीज़ का लॉजिक होता है!"
फिर गणित में 'काल्पनिक संख्या' पढ़ाकर बोलती है— "i² = -1"
अब सोच रहा हूँ, बेवकूफ मैं हूँ या पूरा सिलेबस?

पर जो भी हो, इस उलझन भरी ज़िंदगी में,
हम चलते रहेंगे, मुस्कुराते रहेंगे, शायद कभी जवाब भी मिल जाए...
और अगर न मिला, तो सवालों से ही यारी कर लेंगे।

अब सोच रहा हूँ, ये क्या था बे?
अगर आख़िर में यही लिखना था, तो इतनी माथापच्ची करने का सार क्या था?

~apurv

Image Credits: The Absinthe Drinker by Pablo Picasso