
पेड़ की कीमत, पढ़ के चुकाओ
March 8, 2025
मेरा यह दृढ़ विश्वास है साहब, कि इस दुनिया में क्रांति आ सकती है। पर कैसे? अपने घर की औरतों के पैरों में स्पोर्ट्स शूज पहना दीजिए। जब ये स्पोर्ट्स शूज पहनेंगी, तो मैदान माँगेंगी, दौड़ने का हौसला चाहेंगी। सोचिये: आप घर में प्रवेश करते हैं और दादी हाँफती हुई आती हैं, "बेटा, आज टेनिस का मैच बहुत इंटेंस हो गया!" ड्रॉइंग रूम में माँ को देखते हैं — वह पूरी तरह पसीने में सराबोर बैठी हैं। "क्या हुआ?" पूछने पर मुस्कुराते हुए कहती हैं, "कुछ नहीं बेटा, आज 100 मीटर की टाइमिंग सुधारनी थी। क्या ताक़तवर तस्वीर है ये। एकदम आल्हाद से भर देने वाली। वाह! क्योंकि उनके पैरों में स्पोर्ट्स शूज़ हैं, उन्होंने बाहर जाना चुना, खेलना चुना। और उनके माथे का पसीना सिर्फ़ तहशुदा जगहों पर तहशुदा काम करते हुए नहीं बहा।
और जब औरतें बाहर निकलेंगी, तो क्रांति को कौन रोक पाएगा? सड़कों पर लाइब्रेरियों की कतारें दिखेंगी, किताबों की बौछार होगी, पुस्तकालयों की माला गुंथी होगी, अक्षरों की अविरल वर्षा छिटकेंगी। हो सकता है, स्पोर्ट्स शूज पहनी एक युवती इतिहास की कोई किताब उठाए — झाँसी की रणभेरी पढ़े, कल्पना चावला के सपनों को छुए, या रोजा पार्क्स के साहस से जले दीपक को हवा दे। पढ़ोगे, तो अपने भीतर के सन्नाटे से दो-चार होगे। पढ़ोगे, तो समझ आएगा — यह दुनिया किसी IT सेल का ट्विटर ट्रेंड नहीं, न फेसबुक की कोई टिप्पणी या इंस्टाग्राम की रील। पढ़ने से भीतर का डर टूटेगा। डर टूटेगा, तो बूढ़े या बच्चे का मज़ाक नहीं उड़ाओगे। माफ़ करना सीख जाओगे — दूसरों को भी, खुद को भी। क्योंकि हम सबसे ज़्यादा निर्मम खुद के प्रति ही होते हैं।
हम क्यों कहते रहते हैं — लिखे शब्दों से, अक्षरों से, साहित्य से नाता जोड़िए? क्योंकि जब चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की "उसने कहा था" पढ़ते हो, प्रेमचंद की "कफ़न" में डूबते हो, जयशंकर प्रसाद के "कामायनी" के गुंथन को समझते हो, निराला की कविताओं में झूमते हो, भवानी प्रसाद मिश्र की लय या पाश की ज्वाला को छूते हो, विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों में खोते हो — तो वही नहीं रह जाते। निर्मल वर्मा पढ़ते हुए एक मृदु धुंधलका आपको अपने में समेट लेता है, मानो कोई तिलिस्म भेद रहे हों।
पढ़ना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि हमारी पीढ़ी सुनने-देखने में विश्वास करने लगी है, पढ़ने में नहीं। पढ़ना एकांत का साहसी कर्म है — न कोई फ़िल्टर, न दिखावा। पढ़ते समय सन्नाटा होता है, और उस सन्नाटे में पन्ने आईने बन जाते हैं। तुम्हें अपने भीतर की सारी कमज़ोरियाँ, ज़रूरतें और कमीनेपन दिखने लगता है। हाँ, यहाँ कोई फ़िल्टर नहीं है — झूठ किससे बोलोगे? तुमने दुनिया के नक्शे पर चार झंडे गाड़ दिए, पसंदीदा रंग चुन लिया, स्लैमबुक भी बना ली। तुमने सारे तरीक़ों का इजाद कर लिया है जिससे बदसूरती का नक्शा बदल दिया जाए, पर ये सब कुछ काम नहीं आता, जब तुम अकेले हो और पढ़ रहे हो। क्योंकि अचानक बिना किसी पूर्व चेतावनी के आपको वो शब्द सुनाई देगा—'खुल जा सिम-सिम'—एक गुफ़ा खुल गई और आप दाखिल होने में डर रहे हो, क्योंकि भीतर सब तरह के आईने हैं, और आप ही दिख रहे हो। लिखने में भी कुछ ऐसा ही होता है। आप झूठ लिखकर देखो, आपको बहुत अंदर से आवाज़ आएगी—आप ही को 'कमीना' बोलते हुए, भले ही आप उसे आगे सरका दो। एक बार तो आता ही होगा कि हम कितने चतुर हैं… ‘अरे! क्या लग रहा हो?’ फिर तपली मारो पीछे से—'क्या झंड की मैंने इसकी...' पर अकेलेपन में क्या करोगे, जब पढ़-लिख रहे हो, और सामने वाली लिखी हुई एक इबारत है। उस एकांत में डर लगता है। मुक्ति और कहीं नहीं है—पढ़ने में है।
अपनी दादी की अंतरदेशी पत्र की वो फाइल निकाल लो, किसी अखबार का रविवार संस्करण निकाल लो, और कुछ ना हो तो कैलेंडर निकाल लो जिसमें धोबी या दूधवाले का हिसाब निकला हुआ हो, और एक कोना पकड़ के उसकी तरफ निहारो, पहले पंद्रह मिनट निहारो और फिर पढ़ना शुरू करो।
पढ़ो, राह चलते पहाड़ो, मोबाइल पे पढ़ो, गाड़ी में पढ़ो, ट्रेन में पढ़ो, सरहाने पे भी किताब रखो।
और अगर पढ़ने का मन ना करे, तो बस निहारो। निहारना उसके बाद सोचना, सोच कर लिखना, लिख कर उसे फिर सोचना। खुद ब खुद पढ़ोगे.
अगर पढ़ने का मन नहीं भी करता तो भी पढ़ो।
पढ़ो क्योंकि हमारे पेड़ सिर्फ छांव देने के लिए नहीं कटते।
पढ़ो क्योंकि हर किताब सिर्फ शब्दों का जमावड़ा नहीं होती।
पढ़ो क्योंकि हर पंक्ति में किसी की सोच, किसी का संघर्ष, किसी का सपना होता है।
पढ़ो क्योंकि हर आदमी की सोच के बाद… एक न्यूटन की सोच के बाद सेब सिर्फ पेड़ से गिरने वाला फल नहीं रहा, वो गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत बन गया।
हर किताब सिर्फ पन्नों का पुलिंदा नहीं होती, वो उन पेड़ों की आखिरी सांस होती है, जिसे तुम पढ़ते वक्त ज़िंदा कर सकते हो। वो उन शाखाओं की कहानी होती है, जो अपनी हरियाली कुर्बान कर तुम्हें ज्ञान की छांव दे गईं। हर किताब सिर्फ स्याही से लिखी इबारत नहीं होती, वो उस बीज का सपना होती है, जो अंधेरे में दबा रहा ताकि एक दिन तुम्हारे हाथ में रोशनी बनकर खुल सके। वो उन टहनियों का त्याग होती है, जो टूट गईं ताकि तुम समझ की जड़ें और गहरी जमा सको।
और पढ़ो क्योंकि ये उन चुनिंदा कुर्बानियों में से है, जो जब पेड़ देता है तो उसे तकलीफ नहीं होती है। वो दधीच सा महसूस करते हैं, जब उन्हें पता चलता है कि ये जो मैं कतरा कतरा कट रहा हूँ, इससे एक कागज़ बनेगा जिसपे नफरतों के एंटीडोट्स लिखे जाएंगे, जिसे पढ़ के मानव क्रूरता से करुणा की राह पर चलेगा।
और अगर फिर भी नहीं पढ़ना है... तो मत पढ़ो!
पर याद रखना, वो पेड़ जो तुम्हारी किताब के पन्नों में समा गया है, उसके पास भागने का रास्ता नहीं था।
पर याद रखना, वो पेड़ जो तुम्हारी किताब के पन्नों में समा गया है, उसके पास भागने का रास्ता नहीं था। वो कटते वक्त ये नहीं कह सका कि "भाई, मुझे रहने दो, ये वाला तो पढ़ेगा ही नहीं!"
उसने बिना शिकायत अपनी जड़ें मिट्टी से उखड़ने दीं, अपनी शाखाएं कुल्हाड़ी के नीचे झुका दीं, सिर्फ इस उम्मीद में कि शायद तुम्हारे हाथ में पहुंचकर उसके टुकड़े किसी के मन में समझदारी, संवेदना या सुकून भर सकें।
तो हां, मत पढ़ो…
पर उस पेड़ को इतना तो सम्मान दे दो कि उसकी कुर्बानी बेकार न लगे। वरना तुम्हारी दीवार पर टंगा कैलेंडर, जिस पर लिखा है — "पृथ्वी बचाओ", उसे पढ़ने वाला भी वही था... पेड़!
और हां, अगर फिर भी नहीं पढ़ना है... तो कम से कम वो किताब तकिए के नीचे रख लो, शायद सोते में ही अक्ल आ जाए।
~apurv
Image Credits: "Boy with a spinning top."