क्या होता अगर कुछ ना होता

May 1, 2025

जीवन में जो भी आये, जीना होगा।
नहीं जिया तो क्या होगा?
वही होगा जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होगा,
ख़ुदा न हुआ तो क्या होगा?
वही होगा जो होता है।
सुबह आयेगी, रात जाएगी,
सूरज उगेगा, छाँव छुप जाएगी,
फिर से नदियाँ चलेंगी, हवा गुनगुनाएगी,
वक़्त अपनी रफ़्तार में सब कुछ धुलाएगा।

मैं न होता तो क्या होता?
कुछ न होता।
सूरज उगता, गगन चमकता,
धरती अपनी धुरी पर घूमती,
वृक्ष खड़े रहते, पत्ते झरते,
वर्षा बरसती, नदियाँ बहतीं,
प्रेम भी होता, वियोग भी होता,
मैं न भी होता, तो भी बातें वैसी ही होतीं।

मैं था भी तो क्या था?
एक साँस।
जो आया था, जाने को भी तैयार,
थोड़ा मुस्काया, थोड़ा रोया,
थोड़ा लिखा, थोड़ा खोया,
सब कुछ होने के बावज़ूद—
क्या ही था, क्या ही हो गया, क्या ही होगा।

मैं हूँ भी तो क्या हूँ?
एक बिंदु।
जिसे समय की रेखा छूकर आगे बढ़ जाती है।

मैं हूँगा भी तो क्या ही हूँगा?
मानवता चलती रहेगी,
धरती अपनी धुरी पर घूमती रहेगी,
सूरज उगेगा, संध्या ढलेगी,
नदियाँ कलकल बहेंगी, पत्ते सरसराएँगे,
घड़ी की सुइयाँ आगे बढ़ती रहेंगी,
समय अपना रथ आगे हाँकता रहेगा,
मंदिरों में आरती गूंजेगी, मस्जिदों में अज़ान उठेगी,
कविताएँ फिर भी लिखी जाएँगी, प्रेम फिर भी किया जाएगा,
बच्चे जन्म लेंगे, वृद्ध मृत्यु को पाएँगे,
कोई हँसेगा, कोई रोएगा, कोई चुपचाप चला जाएगा,
किसी की शादी होगी, किसी का तलाक,
और इस समूचे दृश्य में—मैं रहूँ या न रहूँ—
कहीं कोई अंतर न पड़ेगा।

क्या ही हर्ष, क्या ही विषाद,
क्या ही लाभ, क्या ही हानि—
सब रहेगा वैसा का वैसा।

कुछ न हुआ, तो भी क्या ही होगा,
कुछ हो गया, तो भी क्या ही होगा,
और बहुत कुछ हो गया—तो भी क्या ही होगा।

क्योंकि आख़िर में—
कुछ न होता, तो भी सब कुछ होता।
क्योंकि जो होता है, वह मेरे बिना भी होता है।




© Apurva Pandey. All Rights Reserved. May 1, 2025

© Image Credits: Harmen Steenwijck – Still Life: An Allegory of the Vanities of Human Life