
गीत, अगीत, या शायद, बिखरा मौन और अनकहा सत्य
January 15, 2025
रुक्मिणी का प्रेम, पास का गीत,
राधा का प्रेम, दूर का तारा।
एक में हँसी, एक में आँसू,
दोनों में स्नेह का किनारा।
गीत सुनाए जो मन के भाव,
अगीत वही चुपचाप कहे।
संग का सुख या विरह की पीड़ा,
प्रेम तो हर रूप में बहे।
गीत, अगीत, दोनों सुंदर,
पर एक अगीत ऐसा आता है,
उसकी छवि अनकही रह जाती है,
उसकी सुंदरता कहीं खो जाती है,
उसका पराक्रम कभी सो जाता है,
हर अगीत यह अनचाहा प्रयास करता है,
क्यों न वह भी स्वर की छाँव में लुप्त हो जाए,
जैसे मौन की गहरी तड़प,
अपनी मौन में अर्थ ढूँढे, फिर भी खो जाए।
शैली बहती है सहज स्वर में,
पर उर्मी की लहरें भीतर घुटती हैं।
गंगा की पवित्रता आलंबन बनती है,
यमुना के गहन जल में दाह दिखती है।
चंद्र का आलोक स्नेहिल है,
पर तारा दूरी में जलता है।
सुरभि की गंध सजीव है,
पर वैदेही का मौन शाश्वत है।
इस कलियुगी जीवन में,
न गीत टिकता है, न अगीत संभलता।
यहाँ मौन की सुंदरता भी
भाग्य के ठहाकों में कहीं खो जाती है।
पर हर अगीत, चुपचाप उड़कर बिखर जाता है,
जैसे एक बुझी हुई दीप की लौ, हवा में खो जाती है,
जहाँ स्वर के बिना उसकी छाया भी धुंधली पड़ जाती है,
और वह अनकहा, सन्नाटे में खुद को खो देता है।
~apurv
image credits: "Melancholy" by Edvard Munch